श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥ १॥
श्रीभगवान् बोले—कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
व्याख्या—
संन्यासी अथवा योगी मनुष्य न तो अग्निसे बँधता है, न क्रियाओंसे ही बँधता है, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छासे बँधता है-‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) । अतः जिसने कर्मफल की इच्छाका त्याग कर दिया है, वही सच्चा संन्यासी अथवा योगी है । कर्मफलकी आसक्तिका त्याग करनेसे परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है-‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । अतः सच्चा त्यागी भी वही है, जिसने कर्मफलकी आसक्तिका त्याग कर दिया है-‘यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते’ (गीता १८ । ११) ।
ॐ तत्सत् !
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