बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ ६॥
जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
व्याख्या—
शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये न मानना अपने साथ मित्रता करना है । शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये मानना अपने साथ शत्रुता करना है । आप ही अपना मित्र बनकर मनुष्य अपना जितना भला कर सकता है, उतना दूसरा कोई मित्र नहीं कर सकता । इसी प्रकार आपही अपना शत्रु बनकर मनुष्य अपना जितना नुकासान कर सकता है, उतान दूसरा कोई शत्रु नहीं कर सकता ।
ॐ तत्सत् !
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