यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ २॥
हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास—ऐसा कहते हैं, उसीको तुम योग समझो;क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
व्याख्या—
सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनों साधन अलग-अलग होने पर भी संकल्पों के त्याग में एक हैं । जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन है, तब तक वह संकल्पों का त्याग नहीं कर सकता । संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य ज्ञानयोगी, हठयोगी, कर्मयोगी, भक्तियोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है ।
ॐ तत्सत् !
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ २॥
हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास—ऐसा कहते हैं, उसीको तुम योग समझो;क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
व्याख्या—
सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनों साधन अलग-अलग होने पर भी संकल्पों के त्याग में एक हैं । जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन है, तब तक वह संकल्पों का त्याग नहीं कर सकता । संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य ज्ञानयोगी, हठयोगी, कर्मयोगी, भक्तियोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है ।
ॐ तत्सत् !
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