Tuesday, 21 March 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०३)

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ ३॥

जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।

व्याख्या—

निष्कामभाव से केवल दूसरे के लिये कर्म करने से करने का वेग मिट जाता है । कर्म करने का वेग मिटने से साधक योगारूढ़ अर्थात्‌ समता में स्थित हो जाता है । योगारूढ़ होने पर एक शान्ति प्राप्त होती है । उस शान्तिका उपभोग न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।
शम (शान्ति)- का अर्थ है-शान्त होना, चुप होना, कुछ न करना । जबतक हमारा सम्बन्ध ‘करने’ (क्रिया)-के साथ है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है । जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरणरूप बन्धन है । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा । कारण कि क्रिया और पदार्थ-दोनों प्रकृतिमें हैं । चेतन-तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ । इसलिये परमात्मप्राप्तिके लिये ‘शम’ अर्थात्‌ कुछ न करना ही कारण है । हाँ, अगर हम इस शान्तिका उप्भोग करेंगे तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी । ‘मैं शान्त हूँ’- इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे और ‘बड़ी शान्ति है’- इस प्रकार शान्तिमें संतुष्ट होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है । इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझॆ कि शान्ति स्वतः है । शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता अथवा निद्रा आ जायगी । उपभोग न करनेसे शान्ति स्वतः रहेगी । क्रिया और अभिमानके बिना जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है । कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता अथवा भोक्ता नहीं है । जहाँ कर्ता अथवा भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है । भोग होनेपर संसारमें स्थिति होती है ।

ॐ तत्सत् !

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