उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ ५॥
अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
व्याख्या—
गुरु बनना या बनाना गीताका सिद्धान्त नहीं है । वास्तवमें मनुष्य आप ही अपना गुरु है । इसलिये अपनेको ही उपदेश दे अर्थात् दूसरे में कमी न देखकर अपनेमें ही कमी देखे और उसे मिटानेकी चेष्टा करे । भगवान् भी विद्यमान हैं, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और हम भी विद्यमान हैं, फित उद्धारमें देरी क्यों ? नाशवान् व्यक्ति, पदार्थ और क्रियामें आसक्तिके कारण ही उद्धारमें देरी हो रही है । इसे मिटनेकी जिम्मेवारी हमपर ही है; क्योंकि हमने ही आसक्ति की है ।
पूर्वपक्ष-- गुरु, सन्त और भगवान् भी तो मनुष्यका उद्धार करते हैं, ऐसा लोकमें देखा जाता है ?
उत्तरपक्ष-- गुरु, सन्त और भगवान् भी मनुष्यका तभी उद्धार करते हैं, जब स्वयं उन्हें स्वीकार करता है अर्थात् उनओअर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी शरण लेता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है । गुरु, सन्त और भगवान्का कभी अभाव नहीं होता, पर अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उन्हें स्वीका नहीं किया । जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, उन्हींका उद्धार हुआ । अतः अपने उद्धार और पतनमें हम ही हेतु हुए ।
ॐ तत्सत् !
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