Friday, 24 March 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०९ )

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद् वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥९॥

सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करनेवालों में और पाप-आचरण करने वालों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है।

व्याख्या- 
 
जिन से व्यवहार में एकता नहीं करनी चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में और सुहृद, मि, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु तथा पापी व्यक्तियों में भी कर्मयोगी महापुरूष की समबुद्धि रहती है। तात्पर्य है कि उसकी दृष्टि सब प्राणी-पदार्थों में समरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व पर ही रहती है। जैसे सोने से बने गहनों को देखें तो उन में बहुत अन्तर दीखता है, पर सोने को देखें तो कोई अन्तर नहीं, एक सोना-ही-सोना है। इसी प्रकार सांसारिक प्राणी पदार्थों को देखें तो उनमें बहुत बड़ा अन्तर है, पर तत्त्व से देखें तो एक परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।
 
ॐ तत्सत् ! 

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