Thursday, 23 March 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.०४)

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥

कारण कि जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।

व्याख्या-

संसार का स्वरूप है- पदार्थ और क्रिया। मनुष्य योगारूढ़ (योग में स्थित) तभी होता है, जब उसकी पदार्थ और क्रिया में आसक्ति नहीं रहती। जबतक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति है, तब तक वह संसार (विषमता) में ही स्थित है।

प्रत्येक पदार्थ का संयोग और वियोग होता है। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक संकल्प उत्पन्न और नष्ट होता है। परन्तु स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये जब साधक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति मिटा देता है तथा सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है, तब वह योगारू़ढ़ हो जाता है।

ॐ तत्सत् !

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