भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥ २९॥
(भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि) मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानकर भक्त शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—
भगवान् केवल यज्ञों और तपोंके भोक्ता ही नहीं, प्रत्युत भक्तोंके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओं के भोक्ता भी हैं (गीता ९ । २७) । प्रेमके भोक्ता भी भगवान् ही हैं । कोई किसी को नमस्कार करता है तो उसके भोक्ता भी वही हैं । कोई किसी देवता का पूजन करता है तो उसके भोक्ता भी वही हैं (गीता ९ । २३) ।
भगवान् सम्पूर्ण शुभ कर्मों के भोक्ता हैं, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी इश्वर हैं और हमारे परम सुहृद हैं- ऐसा दृढ़तापूर्वक स्वीकार करनेसे साधककी संसारसे ममता हटकर भगवान् में आत्मीयता हो जाती है, जिसके होते ही परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो नाम
पञ्चमोऽध्याय:॥ ५॥
No comments:
Post a Comment