Thursday, 16 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ॥२३॥

इस मनुष्य शरीर में जो कोई मनुष्य शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है। 

व्याख्या -

विवेकी साधक को चाहिये कि वह काम-क्रोधादि विकारों को आरम्भ में ही सहन कर ले, उनके अनुसार क्रिया करे।। काम-क्रोधादि की वृत्ति उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर दे, अन्यथा एक बार काम-क्रोधादि का वेग उत्पन्न होने पर साधक तदनुसार क्रिया करने में बाध्य हो जाता है। काम-क्रोधादि के वश में न होने वाला साधक ही वास्तव में योगी है। जो योगी होता है, वही वास्तव में सुखी होता है।

ॐ तत्सत् ! 

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