ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥ २२॥
क्योंकि हे कुन्तीनन्दन! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दु:खके ही कारण हैं। अत: विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
व्याख्या—
संसारके सभी सुख दुःखकी अपेक्षासे हैं । कोई भी सुख निरन्तर नहीं रहता । यदि सांसारिक सुख निरन्तर रहता तो वह दुःखरूप ही हो जाता । कारण कि सांसारिक भोगोंमें निरन्तर सुख देनेकी शक्ति ही नहीं है । निरन्तर सुख देनेकी शक्ति केवल मोक्षके अखण्डरसमें ही है । संसारके प्रत्येक सुखभोगका परिणाम दुःख होता है-यह नियम है ।
सांसारिक सुख मिलने-बिछुड़नेवाला है, जबकि स्वयं निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । सांसारिक सुख स्वयंका साथी नहीं है । इसलिये विवेकी साधक सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिमें सुखी और अप्राप्तिमें दुःखी नहीं होता ।
सांसारिक सुखभोगसे थकावट आती है और पारमार्थिक सुखसे विश्राम मिलता है । सांसारिक सुख सापेक्ष और पारमार्थिक सुख निरपेक्ष है । जब मनुष्यको नींद आती है, तब बड़े-से-बड़े सांसारिक सुखका भी त्याग करके सो जाता है । सोनेसे उसकी थकावट मिटती है, विश्राम मिलता है और ताजगी आती है । यदि वह सोये नहीं तो पागल हो जाय ! तात्पर्य है कि सांसारिक सुखका त्याग किये बिना मनुष्य रह सकता ही नहीं ।
ॐ तत्सत् !
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