Thursday, 9 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१९)

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ २१॥

बाह्यस्पर्श (प्राकृत वस्तुमात्रके सम्बन्ध)-में आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक अन्त:करणमें जो (सात्त्विक) सुख है, उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य अक्षय सुखका अनुभव करता है।

व्याख्या—

जब सांसारिक प्राणी-पदार्थों की आसक्ति मिट जाती है, तब साधक को सात्त्विक सुख प्राप्त होता है । जब साधक सात्त्विक सुखका भी उपभोग नहीं करता और उसमें संतोष नहीं करता, तब उसे अखण्ड सुखका अनुभव होता है । सात्त्विक सुख तो प्राकृत होनेसे खण्डित होता रहता है, पर अखण्ड सुख कभी खण्डित नहीं होता, प्रत्युत निरन्तर एकरस रहता है । यह अखण्ड सुख मोक्षका सुख है ।

ॐ तत्सत् !

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