नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥ १५॥
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ १६॥
सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप-कर्म को और न शुभ-कर्म को ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञानके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है,उनका वह ज्ञान सूर्य की तरह परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।
व्याख्या—
सर्वव्यापी चेतन-तत्त्व किसी के भी पाप-कर्म अथवा पुण्य-कर्म का कर्ता और भोक्ता नहीं बनता, प्रत्युत अज्ञानवश जीव ही कर्ता-भोक्ता बन जाता है ।
ज्ञानका कभी अभाव नहीं होता । अतः ‘अज्ञान’ शब्द ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अधूरे ज्ञानका वाचक है । बौद्धिक ज्ञान अधूरा ज्ञान है । अधूरे ज्ञानसे ही ज्ञानका अभिमान उत्पन्न होता है । पूर्ण ज्ञान होनेसे अभिमान मिट जाता है । अतः बौद्धिक ज्ञानको महत्त्व देना बहुत बड़ा अज्ञान है । बौद्धिक ज्ञानको महत्त्व देनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि नहीं जाती- यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानको ढकना है ।
अपने विवेक को महत्त्व देने से अज्ञान का नाश हो जाता है । अज्ञान का नाश होनेपर वह विवेक ही तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है ।
अज्ञानका नाश विवेकको महत्त्व देनेसे होता है, अभ्याससे नहीं । अभ्यास करनेसे जड़ता के साथ सम्बन्ध बना रहता है; क्योंकि जड़ता (शरीरादि)-की सहायता लिये बिना अभ्यास होता ही नहीं । तत्त्वज्ञानका अनुभव जड़ताके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होता है ।
ॐ तत्सत् !
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