विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदृशन:॥ १८॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।
व्याख्या—
बेसमझ लोगोंके द्वारा यह श्लोक प्रायः सम-व्यवहारके उदाहरणरूपमें प्रस्तुत किया जाता है । परन्तु इस श्लोकमें ‘समवर्तिनः’ न कहकर ‘समदर्शिनः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है-समदृष्टि, न कि सम-व्यवहार । यदि स्थूलरूपसे भी देखें तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी,और कुत्तेके प्रति सम-व्यवहार असम्भव है । इनमें विषमता अनिवार्य है । जैसे, पूजन विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणका ही हो सकता है, न कि चाण्डालका; दूध गायका ही पिया जाता है, न कि कुतिया का; सवारी हाथीपर ही की जा सकती है, न कि कुत्तेपर । जैसे शरीरके प्रत्येक अंगके व्यवहारमें विषमता अनिवार्य है, पर सुख-दुःखमें समता होती है अर्थात् शरीरके किसी भी अंगका सुख हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख । हमें किसी भी अंगकी पीड़ा सह्य नहीं होती । ऐसे ही प्राणियोंसे विषम (यथायोग्य) व्यवहार करते हुए भी उनके सुख-दुःखमें समभाव होना चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदृशन:॥ १८॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।
व्याख्या—
बेसमझ लोगोंके द्वारा यह श्लोक प्रायः सम-व्यवहारके उदाहरणरूपमें प्रस्तुत किया जाता है । परन्तु इस श्लोकमें ‘समवर्तिनः’ न कहकर ‘समदर्शिनः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है-समदृष्टि, न कि सम-व्यवहार । यदि स्थूलरूपसे भी देखें तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी,और कुत्तेके प्रति सम-व्यवहार असम्भव है । इनमें विषमता अनिवार्य है । जैसे, पूजन विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणका ही हो सकता है, न कि चाण्डालका; दूध गायका ही पिया जाता है, न कि कुतिया का; सवारी हाथीपर ही की जा सकती है, न कि कुत्तेपर । जैसे शरीरके प्रत्येक अंगके व्यवहारमें विषमता अनिवार्य है, पर सुख-दुःखमें समता होती है अर्थात् शरीरके किसी भी अंगका सुख हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख । हमें किसी भी अंगकी पीड़ा सह्य नहीं होती । ऐसे ही प्राणियोंसे विषम (यथायोग्य) व्यवहार करते हुए भी उनके सुख-दुःखमें समभाव होना चाहिये ।
ॐ तत्सत् !
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