योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ ७॥
जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में हैं, जिसका अन्त:करण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वश में है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
व्याख्या—
शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर कर्मयोगीको प्राणीमात्रके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है । एकदेशीयता मिटने पर जब कर्मयोगीमें कर्तापन नहीं रहता, तब उसके द्वारा होनेवाले सब कर्म अकर्म हो जाते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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