Saturday, 25 February 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)


सन्न्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥ ६॥

परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोग के बिना सांख्ययोग सिद्ध होना कठिन है । मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—

कर्मयोगमें साधक सभी कर्म निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है, इसलिये उसका राग सुगमतापूर्वक मिट जाता है । कर्मयोगके द्वारा अपना राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करनेसे शीघ्र सिद्धि होती है । भगवान्‌ने भी इसी कारण कर्मयोगीके ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावको ज्ञानयोगके अन्तर्गत लिया है अर्थात्‌ इस भावको ज्ञानयोगीके लिये भी आवश्यक बताया है (गीता ५ । २५, १२ । ४) । यदि ज्ञानयोगीमें यह भाव नहीं होगा तो उसमें ज्ञानका अभिमान अधिक होगा ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment