Friday, 24 February 2017

गीता प्रबोधनी- पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ ३॥

हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

व्याख्या—

जिसने बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण कर लिया है, वह वास्तवमें संन्यासी नहीं है । संन्यासी वास्तवमें वह है, जिसने भीतरसे राग-द्वेषका त्याग कर दिया है । राग-द्वेषके रहते हुए मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । परन्तु जिसने राग-द्वेषका त्याग कर दिया है, वह सुखपूर्वक संसारसे मुक्त हो जाता है ।
जिसके भीतर राग-द्वेष नहीं है, वह कर्मयोगी शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए बी सदा संन्यासी ही है । उसने अपने कल्याणके लिये बाहरसे संन्यास-आश्रम ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है ।
ज्ञानयोगमें अपने स्वरूपको जाननेकी मुख्यता रहनेसे ज्ञानयोगीमें उदासीनता रहती है । परन्तु कर्मयोगीमें दूसरेके हितकी मुख्यता रहती है । इसलिये अहंवृत्तिका त्याग कर्मयोगमें सुगम है, ज्ञानयोगमें नहीं ।

ॐ तत्सत् !

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