Saturday, 4 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥ ८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥ ९॥

तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, (मल-मूत्रका) त्याग करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ तथा आँख खोलता हुआ और मूँदता हुआ भी 'सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं’—ऐसा समझकर 'मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’—ऐसा माने।

व्याख्या—

अपरा प्रकृतिके अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण अविवेकी मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । परन्तु जब वह विवेकपूर्वक अहम्‌ से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब उसे ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’- इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

हमारा वास्तविक स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । उस स्वरूपमें कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व न कभी थ, न है, न होगा और न हो ही सकता है । अतः शरीरके द्वारा शास्त्र्विहित क्रियाएँ होते हुए भी साधककी दृष्टि अपने स्वरूपकी ओर रहनी चाहिये, जो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित है-‘शरीरस्थो$पि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३९) ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment