Saturday, 4 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ १०॥

जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।

व्याख्या—

कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंको संसारके अर्पण करता है, ज्ञानयोगी प्रकृतिके अर्पण करता है और भक्तियोगी भगवान्‌के अर्पण करता है । तीनोंका परिणाम एक ही होता है । तीनों योगोंमें ‘अपने लिये कुछ न करना’ आवश्यक है ।

ॐ तत्सत् !

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