Saturday, 4 March 2017

गीता प्रबोधनी - पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ ११॥

कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँ, शरीर, मन और बुद्धिके द्वारा अन्त:करणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।

व्याख्या—

ममतका सर्वथा नाश होना ही अन्तःकरणकी शुद्धि है । कर्मयोगी साधक शरीर-इद्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना तथा अपने लिये न मानते हुए, प्रत्युत संसारका तथा संसारके लिये मानते हुए ही कर्म करते हैं । इस प्रकार कर्म करते-करते जब ममताका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब अन्तःकरण पवित्र हो जाता है । पवित्र होनेपर अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूपमें स्थिति हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

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