सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ १३॥
जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले (शरीररूपी) पुरमें सम्पूर्ण कर्मोंका (विवेकपूर्वक) मनसे त्याग करके नि:सन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।
प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेसे जीव प्रकृतिजन्य गुणोंके अधीन हो जाता है-‘अवशः’ (गीता ३ । ५) और प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता बन जाता है । परन्तु जब जीव प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटा देता है, तब वह स्वाधीन हो जाता है-‘वशी’ । स्वाधीन होनेपर वह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । प्रकृतिमें क्रियता और स्वरूपमें अक्रियता स्वतःसिद्ध है । चेतन तत्त्व (स्वरूप) न तो कर्म करता है और न कर्म करनेकी प्रेरणा ही करता है ।
ॐ तत्सत् !
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ १३॥
जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले (शरीररूपी) पुरमें सम्पूर्ण कर्मोंका (विवेकपूर्वक) मनसे त्याग करके नि:सन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।
प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेसे जीव प्रकृतिजन्य गुणोंके अधीन हो जाता है-‘अवशः’ (गीता ३ । ५) और प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता बन जाता है । परन्तु जब जीव प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटा देता है, तब वह स्वाधीन हो जाता है-‘वशी’ । स्वाधीन होनेपर वह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । प्रकृतिमें क्रियता और स्वरूपमें अक्रियता स्वतःसिद्ध है । चेतन तत्त्व (स्वरूप) न तो कर्म करता है और न कर्म करनेकी प्रेरणा ही करता है ।
ॐ तत्सत् !
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