यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ २०॥
योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपसे अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।
व्याख्या—
दूसरे अध्यायके पचपनवें श्लोकमें जिस तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयॊगसे बतायी थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति यहाँ ध्यानयोगसे बतायि गयी है । दोनों साधनोंका प्रापणीय तत्त्व एक होनेपर भी ध्यानयोगमें तत्त्वकी प्राप्ति कठिनतासे तथा विलम्बसे होती है और इसमें योगभ्रष्ट होनेकी भी सम्भावना रहती है (गीता ६ । ४१-४४) । कारण कि ध्यानयोग करणसापेक्ष साधन है ।
ॐ तत्सत् !
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ २०॥
योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपसे अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।
व्याख्या—
दूसरे अध्यायके पचपनवें श्लोकमें जिस तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयॊगसे बतायी थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति यहाँ ध्यानयोगसे बतायि गयी है । दोनों साधनोंका प्रापणीय तत्त्व एक होनेपर भी ध्यानयोगमें तत्त्वकी प्राप्ति कठिनतासे तथा विलम्बसे होती है और इसमें योगभ्रष्ट होनेकी भी सम्भावना रहती है (गीता ६ । ४१-४४) । कारण कि ध्यानयोग करणसापेक्ष साधन है ।
ॐ तत्सत् !
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