यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ १८॥
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥ १९॥
वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है—ऐसा कहा जाता है।
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है,योगका अभ्यास करते हुए वशमें किये हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।
ॐ तत्सत् !
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ १८॥
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥ १९॥
वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है—ऐसा कहा जाता है।
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है,योगका अभ्यास करते हुए वशमें किये हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।
ॐ तत्सत् !
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