सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥ २४॥
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रियसमूहको सभी ओरसे हटाकर।
धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा (संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।
व्याख्या—
सर्वप्रथम साधक बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि स्मपूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्व्के सिवाय कुछ भी नहीं है । तत्पश्चात इस निश्चय्का भी त्याग करके साधक बाहर-भीतर्से चुप हो जाय अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका, न आत्माका, न परमात्माका । कारण कि साधक कुछ भी चिन्तन करेगा तो चित्त (जड़) साथमें रहेगा, चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा । वह किसीका भी चिन्तन करेगा तो किसीका ही चिन्तन होगा और किसीका भी चिन्तन नहीं करेगा तो परमात्माका चिन्तन होगा अर्थात् परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आ जाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आजाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् उसमें न तो यह भाव आये कि ‘यह बना रहे’ और न ही यह भाव आये कि ‘यह चला जाय’ । उसमें न राग करे, न द्वेष करे और न उसे अपनेमेंही माने । मुझे कुछ भी चिन्तन नहीं करना है- ऐसा आग्रह भी साधक न रखे । साधकका स्वभाव ही स्वतः चुप, शान्त होनेका तथा अपने लिये कुछ न करनेका बन जाय ।
पूर्वपक्ष- कुछ भी चिन्तन न करनेसे जो साक्षीभाव रहेगा, वह तो बुद्धिमें ही रहेगा ?
उत्तरपक्ष- साक्षीभाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयंमें होगा; जैसे-युद्ध तो सेना करती है, पर परिणाममें विजय राजाकी ही होती है । साधकका यह साक्षीभाव भी बिना उद्योग किये स्वतः मिट जायगा ।
पूर्वपक्ष- व्यर्थ चिन्तनको मिटानेके लिये परमात्माका चिन्तन करें तो क्या आपत्ति है ?
उत्तरपक्ष- एक चिन्तन किया जात है, एक स्वतः होता है । जैसे भूख लगनेपर अन्नका चिन्तन स्वतः होता है, ऐसे साधकको परमात्माका चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो परमात्माकी आवश्यकता समझ्नेपर ही होगा । परन्तु साधककी प्रायः यह दशा होती है कि उसे परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर सांसारके चिन्तनको मिटानेके लिये वह बलपूर्वक परमात्माका चिन्तन करता है । इसका परिणाम यह होता है कि बलपूर्वक किये गये चिन्तनका प्रभाव भी अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है और संसारका चिन्तन भी होता रहता है । इससे साधकके भीतर यह अभिमान उत्पन्न हो जाता है कि मैंने इतने वर्षोंतक साधन किया अथवा वह निराश हो जाता है कि इतने वर्षोंतक साधन करनेपर भी लाभ नहीं हुआ ! अतः साधक निद्रा-आलस्य छोड़कर चुप, शान्त रहने का स्वभाव बना ले । कुछ भी चिन्तन न करनेसे साधककी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही होगी ।
ॐ तत्सत् !
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥ २४॥
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रियसमूहको सभी ओरसे हटाकर।
धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा (संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।
व्याख्या—
सर्वप्रथम साधक बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि स्मपूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्व्के सिवाय कुछ भी नहीं है । तत्पश्चात इस निश्चय्का भी त्याग करके साधक बाहर-भीतर्से चुप हो जाय अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका, न आत्माका, न परमात्माका । कारण कि साधक कुछ भी चिन्तन करेगा तो चित्त (जड़) साथमें रहेगा, चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा । वह किसीका भी चिन्तन करेगा तो किसीका ही चिन्तन होगा और किसीका भी चिन्तन नहीं करेगा तो परमात्माका चिन्तन होगा अर्थात् परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आ जाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् परमात्मामें स्थिति होगी । अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आजाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् उसमें न तो यह भाव आये कि ‘यह बना रहे’ और न ही यह भाव आये कि ‘यह चला जाय’ । उसमें न राग करे, न द्वेष करे और न उसे अपनेमेंही माने । मुझे कुछ भी चिन्तन नहीं करना है- ऐसा आग्रह भी साधक न रखे । साधकका स्वभाव ही स्वतः चुप, शान्त होनेका तथा अपने लिये कुछ न करनेका बन जाय ।
पूर्वपक्ष- कुछ भी चिन्तन न करनेसे जो साक्षीभाव रहेगा, वह तो बुद्धिमें ही रहेगा ?
उत्तरपक्ष- साक्षीभाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयंमें होगा; जैसे-युद्ध तो सेना करती है, पर परिणाममें विजय राजाकी ही होती है । साधकका यह साक्षीभाव भी बिना उद्योग किये स्वतः मिट जायगा ।
पूर्वपक्ष- व्यर्थ चिन्तनको मिटानेके लिये परमात्माका चिन्तन करें तो क्या आपत्ति है ?
उत्तरपक्ष- एक चिन्तन किया जात है, एक स्वतः होता है । जैसे भूख लगनेपर अन्नका चिन्तन स्वतः होता है, ऐसे साधकको परमात्माका चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो परमात्माकी आवश्यकता समझ्नेपर ही होगा । परन्तु साधककी प्रायः यह दशा होती है कि उसे परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर सांसारके चिन्तनको मिटानेके लिये वह बलपूर्वक परमात्माका चिन्तन करता है । इसका परिणाम यह होता है कि बलपूर्वक किये गये चिन्तनका प्रभाव भी अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है और संसारका चिन्तन भी होता रहता है । इससे साधकके भीतर यह अभिमान उत्पन्न हो जाता है कि मैंने इतने वर्षोंतक साधन किया अथवा वह निराश हो जाता है कि इतने वर्षोंतक साधन करनेपर भी लाभ नहीं हुआ ! अतः साधक निद्रा-आलस्य छोड़कर चुप, शान्त रहने का स्वभाव बना ले । कुछ भी चिन्तन न करनेसे साधककी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही होगी ।
ॐ तत्सत् !
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