Wednesday, 5 April 2017

गीता प्रबोधनी - छठा अध्याय (पोस्ट.१७)


सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ २१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥ २२॥
तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ २३॥

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्वसे फिर कभी विचलित नहीं होता।
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
जिसमें दु:खोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है), उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।

व्याख्या—

ध्यानयोगीको जिस अविनाशी सुखक अनुभव होता है, वह प्रकृतिजन्य गुणोंसे अतीत है । इसलिये उस सुखको ‘आत्यन्तिक’ अर्थात्‌ सात्त्विक सुखसे विलक्षण, ‘अतीन्द्रिय’ अर्थात्‌ राजस सुखसे विलक्षण और ‘बुद्धिग्राह्य’ अर्थात्‌ तामस सुखसे विलक्षण बताया गया है । जड़ताके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही मनुष्य विचलित होता है । ध्यानयोगीका जड़तासे सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है; अतः वह तत्त्वसे कभी विचलित नहीं होता । जैसे समाधि से व्युत्थान होता है, ऐसे उसका अविनाशी सुखसे कभी व्युत्थान नहीं होता ।

जिस सुखके लाभका तो अन्त नहीं है और हानिकी सम्भावना ही नहीं है, तथा जिसमें दुःखका लेश भी नहीं है-ऐसे अखण्डसुख के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्णता है |

‘संयोग’ तथा ‘वियोग’ का विभाग अलग और ‘योग’ का विभाग अलग है । शरीर-संसारके संयोगका वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर परमात्माके ‘योग’ का कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं । कारण कि शरीर-संसार कभी हमारे साथ रहते ही नहीं और परमात्मा कभी हमारा साथ छोड़ते ही नहीं । परमात्माका यह योग सभी साधकोंका साध्य है ।

ॐ तत्सत् !

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