एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥ ३९॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ ४०॥
हे पार्थ ! यह समबुद्धि तेरे लिये (पहले) सांख्य-योगमें कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन; जिस समबुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म-बन्धन का त्याग कर देगा।
मनुष्यलोक में इस समबुद्धिरूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता तथा (इसके अनुष्ठान का) उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
व्याख्या—
भगवान् ने इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्तव्य विज्ञान (धर्मशास्त्र) अर्थात् ‘कर्म’ का वर्णन किया, अब इस उन्तालीसवें श्लोक से तिरपनवें श्लोकतक योग-विज्ञान (मोक्षशास्त्र) अर्थात् ‘कर्मयोग’ का वर्णन करते हैं ।
भगवान् ने चार प्रकार से समताकी महिमा कही है- (१) समतासे मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाता है, (२) समताके आरम्भ अर्थात् उद्देश्यका भी कभी नाश नहीं होता, (३) समताके अनुष्ठानमें यदि कोई भूल हो जाय तो उसक उल्टा फल नहीं होता, और (४) समता का थोड़ा-सा भी भाव हो जाय तो वह कल्याण कर देता है । जीवनमें थोड़ी भी समता आ जाय तो उसका नाश नहीं होता । भय कितना ही महान् हो, उसका नाश हो जाता है ।
असत्को सत्ता तथा महत्ता देनेसे महान् समता भी स्वल्प हो जाती है और स्वल्प भय भी महान् हो जाता है । यदि हम असत्को सत्ता तथा महत्ता न दें तो समता महान् और भय स्वल्प (नष्ट) हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
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