Saturday, 19 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३३)


दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ ४९॥

बुद्धियोग (समता)-की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट हैं। अत: हे धनंजय ! तू बुद्धि (समता)-का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।

व्याख्या—

योगकी अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, उनकी परस्पर तुलना नहीं हो सकती । योग नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला (अविनाशी) है और कर्म आदि-अन्तवाला (नाशवान्‌) है, फिर उनकी तुलना हो ही कैसे सकती है ? इसलिये कर्मोंका आश्रय न लेकर योगका ही आश्रय लेना चाहिये । योगकी प्राप्ति कर्मॊंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत कर्म तथा कर्मफलके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है । कर्मोंका आश्रय जन्म-मरण देनेवाला और योगका आश्रय मुक्त करनेवाला है ।

ॐ तत्सत् !

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