बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ ५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ ५१॥
बुद्धि (समता)-से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्थामें ही) पुण्य और पाप—दोनोंका त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता)-में लग जा; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्र का त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या—
समता में स्थित मनुष्य जल में कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी पाप-पुण्य दोनों से नहीं बँधता अर्थात् मुक्त हो जाता है । यही जीवन्मुक्ति है ।
पूर्वश्लोक में आया है कि योग की अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, इसलिये मनुष्य को समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिये अर्थात् कर्मयोग का आचरण करना चाहिये । महत्त्व योग (समता)- का है, कर्मों का नहीं । कल्याण करने की शक्ति योग (कर्मयोग)- में है, कर्मों में नहीं ।
[ बुद्धि, योग और बुद्धियोग-ये तीनों ही शब्द गीतामें ‘कर्मयोग’ के लिये आये हैं । ]
समता में स्थित होकर कर्म करनेवाले अर्थात् कर्मयोगी साधक जन्म-मरण से रहित होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है ।
ॐ तत्सत् !
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ ५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ ५१॥
बुद्धि (समता)-से युक्त मनुष्य यहाँ (जीवित अवस्थामें ही) पुण्य और पाप—दोनोंका त्याग कर देता है। अत: तू योग (समता)-में लग जा; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है।
कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्र का त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या—
समता में स्थित मनुष्य जल में कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी पाप-पुण्य दोनों से नहीं बँधता अर्थात् मुक्त हो जाता है । यही जीवन्मुक्ति है ।
पूर्वश्लोक में आया है कि योग की अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट हैं, इसलिये मनुष्य को समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिये अर्थात् कर्मयोग का आचरण करना चाहिये । महत्त्व योग (समता)- का है, कर्मों का नहीं । कल्याण करने की शक्ति योग (कर्मयोग)- में है, कर्मों में नहीं ।
[ बुद्धि, योग और बुद्धियोग-ये तीनों ही शब्द गीतामें ‘कर्मयोग’ के लिये आये हैं । ]
समता में स्थित होकर कर्म करनेवाले अर्थात् कर्मयोगी साधक जन्म-मरण से रहित होकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्ति का स्वतन्त्र साधन है ।
ॐ तत्सत् !
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