श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ ५३॥
जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मा में अचल हो जायगी, उस काल में तू योगको प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या—
पूर्वश्लोकमें सांसारिक मोहके त्यागकी बात कहकर भगवान् प्रस्तुत श्लोकमें शास्त्रीय मोह अर्थात् सीखे हुए (अनुभवहीन) ज्ञानके त्यागकी बात कहते हैं । ये दोनों ही प्रकारके मोह साधकके लिये बाधक हैं । शास्त्रीय मोहके कारण साधक द्वैत, अद्वैत, आदि मतभेदोमें उलझकर खण्ड न-मण्डनमें लग जाता है । केवल अपने कल्याणका ही दृढ़ उद्देश्य होने पर साधक सुगमतापूर्वक इस (दोनों प्रकारके) मोहसे तर जाता है ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment