Tuesday, 22 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३५)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ ५२॥

जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको भलीभाँति तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।

व्याख्या—

मिलने और बिछुड़नेवाले पदार्थों और व्याक्तियोंको अपना तथा अपने लिये मानना मोह है । इस मोहरूपी दलदलसे निकलनेपर साधकको संसारसे वैराग्य हो जाता है । संसारसे वैराग्य होने पर अर्थात्‌ रागका नाश होनेपर योग की प्राप्ति हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

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