Thursday, 24 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३७)

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ ५४॥

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ ५५॥

अर्जुन बोले—

हे केशव ! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार करता है?

श्रीभगवान् बोले—

हे पृथानन्दन! जिस कालमें साधक मनमें आयी सम्पूर्ण कामनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

व्याख्या—

मनकी स्थिरताकी अपेक्षा बुद्धिकी स्थिरता श्रेष्ट है; क्योंकि मनकी स्थिरतासे तो लौकिक सिद्धियां प्रकट होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे कल्याण हो जाता है । मनकी स्थिरता है- वृत्तियोंका निरोध और बुद्धिकी स्थिरता है-उद्देश्यकी दृढता ।
त्याग उसीका होता है जो वास्तवमें सदासे ही त्यक्त है । कामना स्वयंगत न होकर मनोगत है । परन्तु मनके साथ तादात्म्य होनेके कारण कामना स्वयंमें दीखने लगती है । जब साधकको स्वयंमें सम्पूर्ण कामनाओंके अभावका अनुभव हो जाता है, तब उसकी बुद्धि स्वतः स्थिर हो जाती है ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment