Saturday, 19 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.३२)


योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ ४८॥

हे धनंजय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

व्याख्या—

एक वस्तु या व्यक्तिमें राग होगा तो दूसरी वस्तु या व्यक्तिमें द्वेष होना स्वाभाविक है । राग-द्वेषके न रहते हुए कर्मकी सिद्धि-असिद्धिमें समताका आना असम्भव है । राग-द्वेषके न रहनेपर जो समता आती है, उस समतामें स्थित रहकर कर्तव्य-कर्मोंको करना चाहिये । समता को ही ‘योग’ कहा जाता है । कर्म तो करणसापेक्ष होते हैं, पर योग करणनिरपेक्ष है । इस समतारूपी योगमें स्थित साधक कभी विचलित (योगभ्रष्ट) नहीं होता ।

ॐ तत्सत् !

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