Tuesday, 15 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२८)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ ४२॥
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ ४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ ४४॥

हे पृथानन्दन ! जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखनेवाले हैं, (भोगोंके सिवाय) और कुछ है ही नहीं—ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्त:करण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है, और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती।

व्याख्या—

भोग और ऐश्वर्य (संग्रह)-की आसक्ति कल्याणमें मुख्य बाधक है । सांसारिक भोगोंको भोगने तथा रुपयों आदिका संग्रह करनेवाला मनुष्य अपने कल्याणका निश्चाय भी नहीं कर सकता, फिर कल्याण करना तो दूर रहा ! इसलिये भगवान्‌ निष्कामभाव (योग)- का अन्वय-व्यतिरेक से वर्णन करते हैं ।

ॐ तत्सत् !

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