Friday, 11 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२५)

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ ३७॥
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ ३८॥

अगर (युद्धमें) तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर (युद्धमें) तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अत: हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार (युद्ध करनेसे) तू पापको प्राप्त नहीं होगा।

व्याख्या—

भगवान्‌ व्यवहार में परमार्थ की कला बताते हैं- सिद्धि-असिद्धिमें सम (तठस्थ) रहकर निष्कामभाव से अपने कर्तव्य कर्मका पालन करना । ऐसा करनेसे मनुष्य युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है । इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण करनेमें समर्थ तथा स्वतन्त्र है ।

ॐ तत्सत् !

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