देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमहर्सि॥ ३०॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सब के देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
प्राणीमात्र परमात्माका अंश है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७) ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ० ११७।१) । परमात्माका अंश होनेके नाते कभी नाश हुआ ही नहीं, कभी नाश होगा ही नहीं, कभी नाश हो सकता ही नहीं । अविनाशित्व, ज्ञान और आनन्द शरीरि के गुण नहीं हैं, प्रत्युत स्वरूप हैं ।
शरीर केवल कर्म करनेका तथा उसका फल भोगनेका उपकरण है । अतः शरीरका सम्बन्ध नाशवान संसारके साथ है; क्योंकि यह संसारका ही अंश है ।
व्याकरणकी दृष्टिसे देखें तो मतुप्, इनि आदि प्रत्यय छः अर्थों में प्रयुक्त होते हैं ।
भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने ।
संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ॥
‘अस्तिविवक्षामें जो मतुप् आदि प्रत्यय होते हैं, वे सब बहुत्व, निंदा, प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय और संसर्ग-इन छः विषयोंमें ही होते हैं ।’
यहाँ जीवात्माके लिये ‘निन्दा’ अर्थमें ‘इनि’ प्रत्यय किया गया है, जिससे ‘देही’, ‘शरीरी’ आदि शब्द बनते हैं । कारण कि जिस चिन्मय एवं अविनाशी सत्ता (आत्मा)-का जड़ एवं नाशवान् शरीर या देहीसे किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध है ही नहीं, उसे शरीरी या देही कहना वास्तवमें उसकी निन्दा ही है । उदाहरणार्थ, जिस मनुष्यको कोढ़ है, उसे कोढ़ी कहना वास्तवमें उसकी निन्दा है; क्योंकि कोढ़ उसका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक दोष है । इसी तरह शरीर उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है- ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ (गीता २ । १८), पर आत्मा उत्पन्न और नष्ट होनेवाला नहीं है- ‘देही नित्यमवध्यो$यम्’ (गीता २। ३० ), ‘न हन्यमाने शरीरे’ (गीता २। २० ) । जब शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर शरीरी कैसे रहेगा ? कोढ़ीको तो कोढ़ खराब दीखता है, पर जीवको अज्ञानवश शरीर खराब न दीखकर उल्टे बढ़िया दीखता है । तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्ने कृपापूर्वक अज्ञानी मनुष्योंको समझानेके लिये ही जीवात्मा (चेतन-तत्त्व)-को शरीरी और देही कहा है । वास्तव में जीवात्म शरीरी अथवा देही नहीं है ।
ॐ तत्सत् !
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमहर्सि॥ ३०॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सब के देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
प्राणीमात्र परमात्माका अंश है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७) ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ० ११७।१) । परमात्माका अंश होनेके नाते कभी नाश हुआ ही नहीं, कभी नाश होगा ही नहीं, कभी नाश हो सकता ही नहीं । अविनाशित्व, ज्ञान और आनन्द शरीरि के गुण नहीं हैं, प्रत्युत स्वरूप हैं ।
शरीर केवल कर्म करनेका तथा उसका फल भोगनेका उपकरण है । अतः शरीरका सम्बन्ध नाशवान संसारके साथ है; क्योंकि यह संसारका ही अंश है ।
व्याकरणकी दृष्टिसे देखें तो मतुप्, इनि आदि प्रत्यय छः अर्थों में प्रयुक्त होते हैं ।
भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने ।
संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ॥
‘अस्तिविवक्षामें जो मतुप् आदि प्रत्यय होते हैं, वे सब बहुत्व, निंदा, प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय और संसर्ग-इन छः विषयोंमें ही होते हैं ।’
यहाँ जीवात्माके लिये ‘निन्दा’ अर्थमें ‘इनि’ प्रत्यय किया गया है, जिससे ‘देही’, ‘शरीरी’ आदि शब्द बनते हैं । कारण कि जिस चिन्मय एवं अविनाशी सत्ता (आत्मा)-का जड़ एवं नाशवान् शरीर या देहीसे किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध है ही नहीं, उसे शरीरी या देही कहना वास्तवमें उसकी निन्दा ही है । उदाहरणार्थ, जिस मनुष्यको कोढ़ है, उसे कोढ़ी कहना वास्तवमें उसकी निन्दा है; क्योंकि कोढ़ उसका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक दोष है । इसी तरह शरीर उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है- ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ (गीता २ । १८), पर आत्मा उत्पन्न और नष्ट होनेवाला नहीं है- ‘देही नित्यमवध्यो$यम्’ (गीता २। ३० ), ‘न हन्यमाने शरीरे’ (गीता २। २० ) । जब शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर शरीरी कैसे रहेगा ? कोढ़ीको तो कोढ़ खराब दीखता है, पर जीवको अज्ञानवश शरीर खराब न दीखकर उल्टे बढ़िया दीखता है । तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्ने कृपापूर्वक अज्ञानी मनुष्योंको समझानेके लिये ही जीवात्मा (चेतन-तत्त्व)-को शरीरी और देही कहा है । वास्तव में जीवात्म शरीरी अथवा देही नहीं है ।
ॐ तत्सत् !
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