स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमहर्सि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस् य न विद्यते॥ ३१॥
और अपने क्षात्रधर्म को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।
व्याख्या—
यदि साधककी रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोगकी नहीं है तो उसे कर्मयोगका पालन करना चाहिये । कारणकि ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंका फल एक ही है (गीता ५ । ४-५) । तात्पर्य है कि शरीर-शरीरीके विवेकको महत्त्व देनेसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीर द्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म)- का पालन करनेसे भी मिल सकता है । अतः भगवान् कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म)-के पालनका प्रकरण आरम्भ करते हैं ।
ॐ तत्सत् !
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्
और अपने क्षात्रधर्म को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।
व्याख्या—
यदि साधककी रुचि, विश्वास और योग्यता ज्ञानयोगकी नहीं है तो उसे कर्मयोगका पालन करना चाहिये । कारणकि ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंका फल एक ही है (गीता ५ । ४-५) । तात्पर्य है कि शरीर-शरीरीके विवेकको महत्त्व देनेसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व शरीर द्वारा स्वधर्म (कर्तव्य-कर्म)- का पालन करनेसे भी मिल सकता है । अतः भगवान् कर्तव्य-कर्म (क्षात्रधर्म)-के पालनका प्रकरण आरम्भ करते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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