Wednesday, 9 November 2016

गीता प्रबोधनी - दूसरा अध्याय (पोस्ट.२४)

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥ ३२॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ ३३॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ ३३॥
अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥ ३४॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ ३५॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दु:खतरं नु किम्॥ ३६॥

अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन ! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पापको प्राप्त होगा । और सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्ति का कथन अर्थात् निन्दा करेंगे । वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दु:खदायी होती है। तथा महारथी लोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे। जिनकी धारणा में तू बहुमान्य हो चुका है, (उनकी दृष्टिमें) तू लघुता को प्राप्त हो जायगा। तेरे शत्रुलोग तेरी सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे । उससे बढ़कर और दु:खकी बात क्या होगी ?

ॐ तत्सत् !

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