श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥ २६॥
अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं।
व्याख्या—
एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को भोग में न लगने देना ‘संयमरूप यज्ञ’ है । व्यवहारकाल में इन्द्रियों के अपने विषयों में प्रवृत्त होने पर उनमें राग-द्वेष न करना ‘विषयहवनरूप यज्ञ’ है ।
हवन तभी होगा, जब विषय नहीं रहेंगे । कारण कि हवन तभी होता है, जब हव्य पदार्थ नहीं रहता । जब तक हव्य पदार्थ की सत्ता रहती है, तब तक हवन नहीं होता ।
ॐ तत्सत् !
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥ २६॥
अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं।
व्याख्या—
एकान्तकाल में अपनी इन्द्रियों को भोग में न लगने देना ‘संयमरूप यज्ञ’ है । व्यवहारकाल में इन्द्रियों के अपने विषयों में प्रवृत्त होने पर उनमें राग-द्वेष न करना ‘विषयहवनरूप यज्ञ’ है ।
हवन तभी होगा, जब विषय नहीं रहेंगे । कारण कि हवन तभी होता है, जब हव्य पदार्थ नहीं रहता । जब तक हव्य पदार्थ की सत्ता रहती है, तब तक हवन नहीं होता ।
ॐ तत्सत् !
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