Wednesday, 8 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२१)


द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥ २८॥

दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्यमय यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।

व्याख्या—

मिली हुई वस्तुओं को निष्कामभाव से दूसरों की सेवा में लगाना ‘द्रव्ययज्ञ’ है । स्वधर्मपालन में आनेवाली कठिनाईयों को प्रसन्नता से सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है । कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में तथा अनुकूल या प्रतिकूल फल की प्राप्ति में सम रहना ‘योगयज्ञ’ है । सत्‌-शास्त्रों का अध्ययन-मनन, नामजप आदि करना ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है ।

ॐ तत्सत् !

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