Saturday, 11 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२२)


अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:॥ २९॥
अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:॥ ३०॥

दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका (पूरक करके) प्राण और अपानकी गति रोककर (कुम्भक करके), फिर प्राणमें अपानका हवन (रेचक) करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी (साधक) यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।

व्याख्या—

पूरक, कूम्भक और रेचकपूर्वक प्राणायाम करना ‘प्राणायामरूप यज्ञ’ है । प्राण-अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना ‘स्तम्भवृत्ति (चतुर्थ) प्राणायामरूप यज्ञ’ है ।

ॐ तत्सत् !

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