Saturday, 4 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१८)


दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
ब्रह्राग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति ॥२५ ॥

अन्य योगी लोग दैव (भगवदर्पणरूप) यज्ञ का ही अनुष्ठान करते है और दूसरे योगी लोग ब्रह्म रूप अग्नि में (विचाररूप) यज्ञ के द्वारा ही (जीवात्मारूप) यज्ञ का हवन करते हैं। व्याख्या- सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थो। को अपना और अपने लिये न मान कर केवल भगवान का और भगवान के लिये ही मानना ‘भगवदर्पणरूप यज्ञ’ है। परमात्मा की सत्ता में अपनी सत्ता मिला देना अर्थात ‘मैं’- पन को मिटा देना ‘अभिन्नतारूप यज्ञ’ है।

ॐ तत्सत् !

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