Tuesday, 31 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१३)


त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स:॥ २०॥

जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग करके (संसारके) आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मोंमें अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।

व्याख्या—

जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति है, वह कर्म न करने पर भी बँधा हुआ है । परन्तु जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति नहीं है, वह कर्म करते हुए भी मुक्त है ।
ॐ तत्सत् !

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