Saturday, 4 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१६)


गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते॥ २३॥

जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।

व्याख्या—

निष्कामभाव पूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञार्थ कर्म’ है । यज्ञार्थ कर्म करनेवाले कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं और उसे अपने स्वतःस्वाभाविक असंग स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

ॐ तत्सत् !

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