Tuesday, 31 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१४)


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥ २१॥

जिसका शरीर और अन्त:करण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या—

केवल शरीर-निर्वाहके लिये जो कर्म किये जाँय, उनसे यदि कोई पाप बन भी जाय तो वह लगता नहीं । परन्तु जो मनुष्य भोग और संग्रहके लिये कर्म करता है, वह पापसे बच नहीं सकता ।

ॐ तत्सत् !

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