निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥ २१॥
जिसका शरीर और अन्त:करण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।
व्याख्या—
केवल शरीर-निर्वाहके लिये जो कर्म किये जाँय, उनसे यदि कोई पाप बन भी जाय तो वह लगता नहीं । परन्तु जो मनुष्य भोग और संग्रहके लिये कर्म करता है, वह पापसे बच नहीं सकता ।
ॐ तत्सत् !
No comments:
Post a Comment