Saturday, 4 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.१७)


ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ २४॥

जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् जिससे अर्पण किया जाय, वे स्रुक् आदि पात्र भी ब्रह्म है, हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य (फल भी) ब्रह्म ही है।

व्याख्या—

अब भगवान अपनी प्राप्तिके लिये भिन्न-भिन्न साधनोंक ‘यज्ञ’ रूपसे वर्णन आरम्भ करते हैं । संसारकी सत्ता विद्यमान है ही नहीं (गीता २ । १६) । एक ब्रह्मके सिवाय कुछ नहीं है । संसारमें जो कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ दिखायी देते हैं, वे सब ब्रह्मरूप ही हैं- ऐसा अनुभव करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ है ।

ॐ तत्सत् !

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