Monday, 12 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०१)

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ १॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥ २॥

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ ३॥

अर्जुन बोले—हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान)-को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अत: आप निश्चय करके उस एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।

श्रीभगवान् बोले—हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।

व्याख्या—

कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों लौकिक निष्ठाएं होनेसे समकक्ष हैं और दोनोंका एक ही फल है (गीता ५ । ४-५) । यद्यपि कर्मायोगमें क्रियाकी और सांख्ययोगमें विवेककी मुख्यता है, तथापि फलमें दोनों एक हैं ।
पूर्वपक्ष- यहाँ भक्तियोग-निष्ठाकी बात नहीं कहीगयी है, इससे सिद्ध हुआ कि कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दोनों ही साधन मान्य हैं ?
उत्तरपक्ष- ऐसा नहीं है । कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनोंकी अपनी निष्टाएँ हैं, पर भक्तियोग साधककी अपनी निष्टा न होकर भगवन्निष्टा है । भक्तियोगमें साधक भगवान्‌पर निर्भर रहता है ।
कर्मयोग और भक्तियोग-दोनों लौकिक निष्टाएँ हैं । कर्मयोगमें जगत्‌की और ज्ञानयोगमें जीवकी मुख्यता है । जगत्‌ और जीव दोनों लौकिक हैं-‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६); क्योंकि जगत्‌ (जड़) और जीव (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे जाननेमें आते हैं, पर भगवान जाननेमें नहीं आते । भगवान्‌ माननेके विषय हैं, जाननेके नहीं । परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्टा है ; क्योंकि इसमें भगवान्‌की मुख्यता है, जो जगत्‌ और जीव दोनोंसे उत्तम हैं- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (गीता १५ । १७) ।

ॐ तत्सत् !

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