Saturday, 17 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥ ६॥
जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)- को हठपूर्वक रोककर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
व्याख्या—
दूसरे अध्यायमें भगवान्‌ कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २ । ६२-६३) । यहाँ लोगोंको दिखानेके लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन करने वाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है ।
वास्तवमें (भोगबुद्धिसे) बाहर से भोग भोगने और मन से उनका चिन्तन करने में कोई अन्तर नहीं है । दोनों का अन्तःकरण पर समान प्रभाव पड़ता है । एक दृष्टि से मन से भोगों का चिन्तन करने से साधक का विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगों की प्राप्ति नहीं होती या जिन भोगों को वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगों को भोगने में वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मन से भोग सकता है ।
ॐ तत्सत् !

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