न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ ५॥
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।
व्याख्या—
प्रकृति का विभाग अलग है और स्वरूप का विभाग अलग है । क्रियामात्र प्रकृति-विभाग में है । स्वरूप अक्रिय है । प्रकृति में श्रम है और स्वरूपमें विश्राम है । अतः जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता ।
ॐ तत्सत् !
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