Thursday, 15 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०३)


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ ५॥

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।

व्याख्या—

प्रकृति का विभाग अलग है और स्वरूप का विभाग अलग है । क्रियामात्र प्रकृति-विभाग में है । स्वरूप अक्रिय है । प्रकृति में श्रम है और स्वरूपमें विश्राम है । अतः जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता ।

ॐ तत्सत् !

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