Saturday, 17 December 2016

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.०५)

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ ७॥
परन्तु हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्कामभावसे) कर्मेन्द्रियों (समस्त इन्द्रियों)-के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्याख्या—
फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करके दूसरों के लिये कर्म करने वाला कर्मयोगी ज्ञानयोग से भी श्रेष्ट है । आगे पाँचवें अध्याय में भी भगवान्‌ कर्मयोग को ज्ञानयोग से श्रेष्ट बतायेंगे (गीता ५। २) ।
ॐ तत्सत् !

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