न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य ं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ ४॥
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
व्याख्या—
जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभाव पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बाँधनेवाले नहीं रहते । केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता । क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती ।
ॐ तत्सत् !
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ ४॥
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।
व्याख्या—
जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभाव पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बाँधनेवाले नहीं रहते । केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता । क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती ।
ॐ तत्सत् !
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