एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ ७२॥
हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या—
अहंतारहित होनेपर मनुष्य ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाता है । उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती । इस ब्राह्मी स्थितिकी प्राप्ति एक बार और सदाके लिये होती है । कारणकि ब्रह्ममें हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंताके कारण इसका अनुभव नहीं होता । ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय- यही ब्राह्मी स्थिति है । ‘है’ (सत्तामात्र) हमारा स्वरूप है । अतः ‘मैं’-पनको मिटाना नहीं है, प्रत्युत उसे अपनेमें स्वीकार नहीं करना है । जिसकी सत्ता विद्यमान ही नहीं है, उसे मिटानेका प्रयत्न करना उल्टे उसे सत्ता देना है ।
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली तथ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती । शरीर तो मिलने-बिछुड़नेवाल तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाल है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़नेवाला तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाला नहीं है । अतः साधक दृढतापूर्वक इस सत्यको स्वीकार कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकालमें भी शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये भी नहीं है ।
‘निर्वाण’ शब्दके तो अर्थ होते हैं- लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त) । अतः खोये हुए ब्रह्मको पा लेना अथवा परम विश्रामको प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति है । ‘निर्वाण’ शब्दका एक अर्थ शून्य भी होता है । शून्यका तात्पर्य है- जो न सत् हो, न असत् हो, न सदसत्हो और न सदसत्से भिन्न हो अर्थात् जो अनिवर्चनीय तत्त्व हो- ‘अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह) ।
क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । इसलिये शरीरके द्वारा हम अपने (स्वरूपके) लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरके द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके ही होगी, अपने लिये नहीं ।
पूर्वपक्ष- तो फिर हम अपने लिये क्या कर सकते हैं ?
उत्तरपक्ष- हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम वास्तवमें स्वरूपसे निष्काम, निर्मम और निरहंकार हैं ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ ७२॥
हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या—
अहंतारहित होनेपर मनुष्य ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाता है । उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती । इस ब्राह्मी स्थितिकी प्राप्ति एक बार और सदाके लिये होती है । कारणकि ब्रह्ममें हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंताके कारण इसका अनुभव नहीं होता । ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय- यही ब्राह्मी स्थिति है । ‘है’ (सत्तामात्र) हमारा स्वरूप है । अतः ‘मैं’-पनको मिटाना नहीं है, प्रत्युत उसे अपनेमें स्वीकार नहीं करना है । जिसकी सत्ता विद्यमान ही नहीं है, उसे मिटानेका प्रयत्न करना उल्टे उसे सत्ता देना है ।
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली तथ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती । शरीर तो मिलने-बिछुड़नेवाल तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाल है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़नेवाला तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाला नहीं है । अतः साधक दृढतापूर्वक इस सत्यको स्वीकार कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकालमें भी शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये भी नहीं है ।
‘निर्वाण’ शब्दके तो अर्थ होते हैं- लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त) । अतः खोये हुए ब्रह्मको पा लेना अथवा परम विश्रामको प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति है । ‘निर्वाण’ शब्दका एक अर्थ शून्य भी होता है । शून्यका तात्पर्य है- जो न सत् हो, न असत् हो, न सदसत्हो और न सदसत्से भिन्न हो अर्थात् जो अनिवर्चनीय तत्त्व हो- ‘अतस्तत्त्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह) ।
क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । इसलिये शरीरके द्वारा हम अपने (स्वरूपके) लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरके द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके ही होगी, अपने लिये नहीं ।
पूर्वपक्ष- तो फिर हम अपने लिये क्या कर सकते हैं ?
उत्तरपक्ष- हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और निरहंकार हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम वास्तवमें स्वरूपसे निष्काम, निर्मम और निरहंकार हैं ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम
द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥
No comments:
Post a Comment